25-11-85  ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन

निश्चय बुद्धि विजयी रत्न की निशानियाँ

सर्व के सहारे रहमदिल बापदादा बोले

आज बापदादा अपने निश्चय बुद्धि विजयी रत्नों की माला को देख रहे थे। सभी बच्चे अपने को समझते हैं कि मैं निश्चय में पक्का हूँ? ऐसा कोई विरला होगा जो अपने को निश्चयबुद्धि नहीं मानता हो। किसी से भी पूछेंगे, निश्चय है? तो यही कहेंगे कि निश्चय न होता तो ब्रह्माकुमार-ब्रह्माकुमारी कैसे बनते। निश्चय के प्रश्न पर सब ‘हाँ’ कहते हैं। सभी निश्चयबुद्धि बैठे हैं, ऐसे कहेंगे ना? नहीं तो जो समझते हैं कि निश्चय हो रहा है वह हाथ उठावें। सब निश्चयबुद्धि हैं। अच्छा जब सभी को पक्का निश्चय है फिर विजय माला में नम्बर क्यों हैं? निश्चय में सभी का एक ही उत्तर है ना! फिर नम्बर क्यों? कहाँ अष्ट रत्न, कहाँ 100 रत्न और कहाँ 16 हजार! इसका कारण क्या? अष्ट देव का पूजन गायन और 16 हजार की माला का गायन और पूजन में कितना अन्तर है? बाप एक है और एक के ही हैं यह निश्चय है फिर अन्तर क्यों? निश्चयबुद्धि में परसेन्टेज होती है क्या? निश्चय में अगर परसेन्टेज हो तो उसको निश्चय कहेंगे? 8 रत्न भी निश्चय बुद्धि, 16 हजार वाले भी निश्चयबुद्धि कहेंगे ना!

निश्चयबुद्धि की निशानी ‘विजय’ है। इसलिए गायन है - ‘निश्चयबुद्धि विजयन्ति’। तो निश्चय अर्थात् विजयी हैं ही हैं। कभी विजय हो, कभी न हो। यह हो नहीं सकता। सरकमस्टांस भले कैसे भी हों लेकिन निश्चयबुद्धि बच्चे सरकमस्टांस में अपनी स्वस्थिति की शक्ति द्वारा सदा विजय अनुभव करेंगे। जो विजयी रत्न अर्थात् विजय माला का मणका बन गया, गले का हार बन गया उसकी माया से हार कभी हो नहीं सकती। चाहे दुनिया वाले लोग वा ब्राह्मण परिवार के सम्बन्धसम्पर्व  में दूसरा समझे वा कहें कि यह हार गया - लेकिन वह हार नहीं है, जीत है। क्योंकि कहाँ-कहाँ देखने वा करने वालों कि मिस-अण्डरस्टैन्डिंग भी हो जाती है। नम्रचित्त, निर्मान वा ‘हाँ जी’ का पाठ पढ़ने वाली आत्माओं के प्रति कभी मिस-अण्डरस्टैन्डिंग से उसकी हार समझते हैं, दूसरों को रूप हार का दिखाई देता है लेकिन वास्तविक विजय है। सिर्फ उस समय दूसरों के कहने वा वायुमण्डल में स्वयं निश्चयबुद्धि से बदल ‘शक’ का रूप न बने। पता नहीं हार है या जीत है। यह ‘शक’ न रख अपने निश्चय में पक्का रहे। तो जिसको आज दूसरे लोग हार कहते हैं, कल ‘वाह-वाह’ के पुष्प चढ़ायेंगे।

विजयी आत्मा को अपने मन में, अपने कर्म प्रति कभी दुविधा नहीं होगी। राइट हूँ वा रांग हूँ? दूसरे का कहना अलग चीज़ है। दूसरे कोई राइट कहेंगे कोई रांग कहेंगे लेकिन अपना मन निश्चयबुद्धि हो कि - मैं विजयी हूँ। बाप में निश्चय के साथ-साथ स्वयं का भी निश्चय चाहिए। निश्चयबुद्धि अर्थात् विजयी का मन अर्थात् संकल्प शक्ति सदा स्वच्छ होने के कारण हाँ और ना का स्वयं प्रति वा दूसरों के प्रति निर्णय सहज और सत्य, स्पष्ट होगा। इसलिए ‘पता नहीं’, की दुविधा नहीं होगी। निश्चयबुद्धि विजयी रत्न की निशानी - सत्य निर्णय होने के कारण मन में जरा भी मूँझ नहीं होगी। सदैव मौज होगी। खुशी की लहर होगी। चाहे सरकमस्टांस आग के समान हो लेकिन उसके लिए वह अग्नि-परीक्षा विजय की खुशी अनुभव करायेगी। क्योंकि परीक्षा में विजयी हो जायेंगें ना। अब भी लौकिक रीति किसी भी बात में विजय होती है तो खुशी मनाने के लिए हँसते नाचते ताली बजाते हैं। यह खुशी की निशानी है। निश्चयबुद्धि कभी भी किसी भी कार्य में अपने को अकेला अनुभव नहीं करेंगे। सभी एक तरफ हैं मैं अकेला दूसरी तरफ हूँ, चाहे मैजारिटी दूसरे तरफ हों और विजयी रत्न सिर्फ एक हो फिर भी वह अपने को एक नहीं लेकिन बाप मेरे साथ है इसलिए बाप के आगे अक्षोणी भी कुछ नहीं है। जहाँ बाप है वहाँ सारा संसार बाप में है। बीज है तो झाड़ उसमें है ही। विजयी निश्चयबुद्धि आत्मा सदा अपने को सहारे के नीचे समझेंगे। सहारा देने वाला दाता मेरे साथ है - यह नैचरल अनुभव करता है। ऐसे नहीं कि जब समस्या आवे उस समय बाप के आगे भी कहेंगे - बाबा आप तो मेरे साथ हो ना। आप ही मददगार हो ना। बस अब आप ही हो। मतलब का सहारा नहीं लेंगे। आप हो ना, यह हो ना का अर्थ क्या हुआ? निश्चय हुआ? बाप को भी याद दिलाते हैं कि आप सहारा हो। निश्चयबुद्धि कभी भी ऐसा संकल्प नहीं कर सकते। उनके मन में जरा भी बेसहारे वा अकेलेपन का संकल्प मात्र भी अनुभव नहीं होगा। निश्चयबुद्धि विजयी होने के कारण सदा खुशी में नाचता रहेगा। कभी उदासी वा अल्पकाल का हद का वैराग, इसी लहर में भी नहीं आयेंगे। कई बार जब माया का तेज वार होता है, अल्पकाल का वैराग भी आता है लेकिन वह हद का अल्पकाल का वैराग होता है। बेहद का सदा का नहीं होता। मजबूरी से वैराग वृत्ति उत्पन्न होता है। इसलिए उस समय कह देते हैं कि इससे तो इसको छोड़ दें। मुझे वैराग आ गया है। सेवा भी छोड़ दें यह भी छोड़ दें, वैराग आता है लेकिन वह बेहद का नहीं होता। विजयी रत्न सदा हार में भी जीत, जीत में भी जीत अनुभव करेंगे। हद के वैराग को कहते हैं - किनारा करना। नाम वैराग कहते लेकिन होता किनारा है। तो विजयी रता किसी कार्य से, समस्या से, व्यक्ति से किनारा नहीं करेंगे। लेकिन सब कर्म करते हए, सामना करते हुए, सहयोगी बनते हुए बेहद के वैरागवृत्ति में होंगे। जो सदाकाल का है। निश्चयबुद्धि विजयी कभी अपने विजय का वर्णन नहीं करेंगे। दूसरे को उल्हना नहीं देंगे। देखा मैं राइट था ना। यह उल्हना देना या वर्णन करना यह खालीपन की निशानी है। खाली चीज़ ज्यादा उछलती है ना। जितना भरपूर होंगे उतना उछलेंगे नहीं। वियजी सदा दूसरे की भी हिम्मत बढ़ायेगा। नीचा दिखाने की कोशिश नहीं करेगा। क्योंकि विजयी रत्न बाप समान ‘मास्टर सहारे दाता’ है। नीचे से ऊँचा उठाने वाला है। निश्चयबुद्धि व्यर्थ से सदा दूर रहता है। चाहे व्यर्थ संकल्प हो, बोल हो वा कर्म हो। व्यर्थ से किनारा अर्थात् विजयी है। व्यर्थ के कारण ही कभी हार कभी जीत होती है। व्यर्थ समाप्त हो तो हार समाप्त। व्यर्थ समाप्त होना यह विजयी रत्न की निशानी है। अब यह चैक करो कि निश्चयबुद्धि विजयी रत्न की निशानियाँ अनुभव होती हैं? सुनाया ना - निश्चयबुद्धि तो हैं, सच बोलते हैं। लेकिन निश्चयबुद्धि एक हैं जानने तक, मानने तक और एक हैं चलने तक। मानते तो सभी हो कि हाँ, भगवान मिल गया। भगवान के बन गये। मानना वा जानना एक ही बात है। लेकिन चलने में नम्बरवार हो जाते। तो जानते भी हैं, मानते भी इसमें ठीक हैं लेकिन तीसरी स्टेज है - मान कर, जानकर चलना। हर कदम में निश्चय की वा विजय की प्रत्यक्ष निशानियाँ दिखाई दें। इसमें अन्तर है। इसलिए नम्बरवार बन गये। समझा। नम्बर क्यों बनें हैं।

इसी को ही कहा जाता है - ‘नष्टोमोहा’। नष्टोमोहा की परिभाषा बड़ी गुह्य है। वह फिर कब सुनायेंगे। निश्चयबुद्धि नष्टोमोहा की सीढ़ी है। अच्छा- आज दूसरा ग्रुप आया है। घर के बालक ही मालिक हैं तो घर के मालिक अपने घर में आये हैं ऐसे कहेंगे ना। घर में आये हो या घर से आये हो? अगर उसको घर समझेंगे तो ममत्व जायेगा। लेकिन वह टैम्प्रेरी सेवा स्थान है। घर तो सभी का ‘मधुबन’ है ना। आत्मा के नाते परमधाम है। ब्राह्मण के नाते मधुबन है। जब कहते ही हो कि हेड आिफस माउण्ट आबू है तो जहाँ रहते हो वह क्या हुई? आिफस हुई ना! तब तो हेड आिफस कहते। तो घर से आये नहीं हो लेकिन घर में आये हो। आिफस से कभी भी किसको चेन्ज कर सकते हैं। घर से निकाल नहीं सकते। आिफस तो बदली कर सकते। घर समझेंगे तो मेरा-पन रहेगा। सेन्टर को भी घर बना देते। तब मेरा-पन आता है। सेन्टर समझें तो मेरा-पन नहीं रहे। घर बन जाता, आराम का स्थान बन जाता तब मेरा-पन रहता है। तो अपने घर से आये हो। यह जो कहावत है - ‘अपना घर दाता का दर’। यह कौन से स्थान के लिए है? वास्तविक दाता का दर अपना घर तो ‘मधुबन’ है ना। अपने घर में अर्थात् दाता के घर में आये हो। घर अथवा दर कहो बात एक ही है। आने घर में अपने से आराम मिलता है ना। मन का आराम। तन का भी आराम, धन का भी आराम। कमाने के लिए जाना थोड़े ही पड़ता। खाना बनाओ तब खाओ इससे भी आराम मिल जाता, थाली में बना बनाया भोजन मिलता है। यहाँ तो ठाकुर बन जाते हो। जैसे ठाकुरों के मंदिर में घण्टी बजाते है ना। ठाकुर को उठाना होगा, सुलाना होगा तो घण्टी बजाते। भोग लगायेंगे तो भी घण्टी बजायेंगे। आपकी भी घण्टी बजती है ना। आजकल फैशनेबल हैं तो रिकार्ड बजता है। रिकार्ड से सोते हो, फिर रिकार्ड से उठते हो तो ठाकुर हो गये ना। यहाँ का ही फिर भक्तिमार्ग में कापी करते हैं। यहाँ भी 3, 4 बार भोग लगता है। चैतन्य ठाकुरों को 4 बजे से भोग लगाना शुरू हो जाता है। अमृतवेले से भोग शुरू होता। चैतन्य स्वरूप में भगवान सेवा कर रहा है बच्चों की। भगवान की सेवा तो सब करते हैं, यहाँ भगवान सेवा करता। किसकी? चैतन्य ठाकुरों की। यह निश्च सदा ही खुशी में झुलाता रहेगा। समझा। सभी जोन लाड़ले हैं। जब जो जोन आता है वह लाड़ला है। लाड़ले तो हो लेकिन सिर्फ बाप के लाड़ले बनो। माया के लाड़ले नहीं बन जाओ। माया के लाड़ले बनते हो तो फिर बहुत लाड़ कोड करते हो। जो भी आये हैं भाग्यवान आये हो - भगवान के पास। अच्छा-

सदा हर संकल्प में निश्चयबुद्धि विजयी रत्न, सदा भगवान और भाग्य के स्मृति स्वरूप आत्माओं को, सदा हार और जीत दोनों में विजय अनुभव करने वालों को, सदा सहारा अर्थात् सहयोग देने वाले मास्टर सहारे दाता आत्माओं को, सदा स्वयं को बाप के साथ अनुभव करने वाली श्रेष्ट आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।’’

पार्टियों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात –

1. सभी एक लगन में मगन रहने वाली श्रेष्ठ आत्मायें हो? साधारण तो नहीं। सदा श्रेष्ठ आत्मायें जो भी कर्म करेंगी वह श्रेष्ठ होगा। जब जन्म ही श्रेष्ठ है तो कर्म साधारण कैसे होगा! जब जन्म बदलता है तो कर्म भी बदलता है। नाम रूप, देश, कर्म सब बदल जाता है। तो सदा नया जन्म, नये जन्म की नवीनता के उमंग-उत्साह में रहते हो! जो कभी-कभी रहने वाले हैं उन्हें राज्य भी कभीकभी मिलेगा।

जो निमित्त बनी हुई आत्मायें हैं उन्हें निमित्त बनने का फल मिलता रहता है। और फल खाने वाली आत्मायें शक्तिशाली होती हैं। यह प्रत्यक्षफल है, श्रेष्ठ युग का फल है। इसका फल खाने वाले सदा शक्तिशाली होंगे। ऐसे शक्तिशाली आत्मायें परिस्थितियों के ऊपर सहज ही विजय पा लेती हैं। परिस्थिति नीचे और वह ऊपर। जैसे श्रीकृष्ण के लिए दिखाते हैं कि उसने साँप को भी जीता। उसके सिर पर पाँव रखकर नाचा। तो यह आपका चित्र है। कितने भी जहरीले साँप हों लेकिन आप उन पर भी विजय प्राप्त कर नाच करने वाले हो। यही श्रेष्ठ शक्तिशाली स्मृति सबको समर्थ बना देगी। और जहाँ समर्थता है वहाँ व्यर्थ समाप्त हो जाता है। समर्थ बाप के साथ हैं, इसी स्मृति के वरदान से सदा आगे बढ़ते चलो।

2. सभी अमर बाप की अमर आत्मायें हो ना। अमर हो गई ना? शरीर छोड़ते हो तो भी अमर हो, क्यों? क्योंकि भाग्य बना करके जाते हो। हाथ खाली नहीं जाते। इसलिए मरना नहीं है। भरपूर होकर जाना है। मरना अर्थात् हाथ खाली जाना। भरपूर होकर जाना माना चोला बदली करना। तो अमर हो गये ना। ‘अमर भव’ का वरदान मिल गया। इसमें मृत्यु के वशीभूत नहीं होते। जानते हो जाना भी है फिर आना भी है। इसलिए अमर हैं। अमरकथा सुनते-सुनते अमर बन गये। रोज-रोज प्यार से कथा सुनते हो ना। बाप अमरकथा सुनाकर अमरभव का वरदान दे देता है। बस सदा इसी खुशी में रहो कि अमर बन गये। मालामाल बन गये। खाली थे, भरपूर हो गये। ऐसे भरपूर हो गये जो अनेक जन्म खाली नहीं हो सकते। 3. सभी याद की यात्रा में आगे बढ़ते जा रहे हो ना। यह रूहानी यात्रा सदा ही सुखदाई अनुभव करायेगी। इस यात्रा से सदा के लिए सर्व यात्रायें पूर्ण हो जाती हैं। रूहानी यात्रा की तो सभी यात्रायें हो गई और कोई यात्रा करने की आवश्यकता ही नहीं रहती। क्योंकि महान यात्रा है ना। महान यात्रा में सब यात्रायें समाई हुई है। पहले यात्राओं में भटकते थे अभी इस रूहानी यात्रा से ठिकाने पर पहुँच गये। अभी मन को भी ठिकाना मिला तो तन को भी ठिकाना मिला। एक ही यात्रा से अनेक प्रकार का भटकना बन्द हो गया। तो सदा रूहानी यात्री हैं इस स्मृति में रहो, इससे सदा उपराम रहेंगे, न्यारे रहेंगे, निर्मोही रहेंगे। किसी में भी मोह नहीं जायेगा। यात्री का किसी में भी मोह नहीं जाता। ऐसी स्थिति सदा रहे।

विदाई के समय - बापदादा सभी देश-विदेश के बच्चों को देख खुश होते हैं क्योंकि सभी सहयोगी बच्चे हैं। सहयोगी बच्चों को बापदादा सदा दिलतख्तनशीन समझ याद कर रहे हैं। सभी निश्चयबुद्धि आत्मायें बाप की प्यारी हैं। क्योंकि सभी गले का हार बन गई। अच्छा - सभी बच्चे सर्विस अच्छी वृद्धि को प्राप्त करा रहे हैं। अच्छा, सभी को याद – ओम शान्ति।